Sunday, March 17, 2013





आदिकाल में भगवान विश्कर्मा ने अपनी निजी शक्ति का द्वारा वैज्ञानिक वरदान देकर मानव को जीवन कला सिखाई थी । आज मानव भगवान विश्वकर्मा के बताये हुये मार्ग से भटक गया है । भौतिकवाद के इस युग में भगवान विश्वकर्मा की पूजा अर्चना व भक्ति करना नितान्त आवश्यक इसलिए है कि विज्ञान के युग में दुर्घटना व मानसिक अशान्ति से मुक्ति प्राप्त केवल मात्र भगवान विश्कर्मा की शरण में जाने से ही सम्भव है । मस्तिष व मशीन का तादात्मय रहने से ही भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति हो सकती है, इसलिये दोनों तत्वों की संचालन शक्ति भगवान विश्वकर्मा के आधीन है ।
स्वचलित परमाणु सयंत्र विमान व अन्य मोटर गाडी व रेलों की दुर्घटना का कारण एक ही है कि मानव सूर्य आदि सौर नक्षत्रों की गति नियमित व संचालित करने वाली समस्त ब्रह्माण्ड पर नियंत्रित रखने वाली अजस्त्र शक्ति भगवान विश्वकर्मा से विमुख होकर अपने द्वारा गढे हुए बहु भगवानो की पूजा व अन्य विश्वास के जाल में जकडकर रह गया है, तथा भौतिकवाद की छाया का शिकार हो गया है । अतः मानव के भौतिक व आध्यात्मिक सुख साधन व विकास के लिये प्रजापति विश्व ब्रह्माण्ड के नियंत्रक व संचालक भगवान विश्कर्मा की आराधना व पूजा पाठ करने के लिये मानव मात्र के स्वान्त सुख हेतु भगवान विश्वकर्मा की चरित्र लिला का दोहे व चौपाईयों के माध्यम से सुन्दर विश्वकर्मा का चरित्र दर्पण हुआ है ।
कलयुग में मानव जब तक विज्ञान शक्ति के प्रतीक भगवान विश्वकर्मा के चरणों में बैठकर तप व साधना नहीं करेंगें तो परमाणु बमो के विस्फोट का व परमाणु रिएक्टरों की दुर्घटना से विकिरण का भयंकर खतरा हमेशा बना रहेगा, क्योंकि मानव अपने द्वारा निर्मित कल्पित भगवानों की व रात्री जागरण करके विश्व का अजस्त्र शक्ति विश्वकर्मा का उपहास करके निन्दित कर्म करके समस्त वातावरण को कलुषित कर रहा है । भगवान विश्वकर्मा ही ऐसी महतो महियान अणोरणीयान शक्ति है जो कि विज्ञान के इस भयंकर युग में मानव को सर्वनाश होने से रक्षा कर सकती है ।
वेदों में इस विश्व की रचना व सृजन करने वाली आद्या शक्ति को भगवान के नाम से पुकारा गया । विश्वकर्मा शब्दों से बना है, पहले हम विश् शब्द की निष्पत्ति करतें हैं । विश् प्रवेशने धातु से विश्व शब्द सिद्ध होता है ।
विशानि प्रविष्टानि सर्वाणि आकाशादीनि भूतानि यो, वाSSकाशादिषू सर्वेषु भूतेषु प्रविष्ट स वा विश्व कृत्स्न कर्म स विश्वकर्मा ईश्वर ।।
यहां तक ही नहीं ऋग्वेद मण्डल 10 अध्याय 81 मंत्र प्रथम में विश्वकर्मा के विषय में स्पष्ट रुप से आद्याशक्ति कोई काल्पनिक नहीं है जबकि भारत में तो असंख्य काल्पनिक भगवानों की भरमार है । विश्वकर्मा शब्द वैदिक है और यास्क मुनि ने अपने निरुक्त और निघन्टु वेदार्थ में विश्वकर्मा शब्द की निष्पात्ति व निरुपण करते हुए यूं कहा है कि आत्मा त्वष्टा प्रजापति आदित्य वाक् प्राण आदि विश्वकर्मा के ही वाचक है शतपथ ब्राह्मण में वाक् वै विश्वकर्मा, मंत्र वै विश्वकर्मा, शब्द वै विश्वकर्मा, छंद वै विश्वकर्मा अर्थात वाक्, छंद, प्राण, शब्द को ही विश्वकर्मा कहते है । इसी बात को बाईबिल भी हमारी पुष्टी करते हुये कहती है कि आदि में शब्द या शब्द परमेश्वर था, शब्द परमेश्वर है । इसी बात की पुष्टी, गुरु वाणी में विश्व के महान अवतार गुरुनानक देव के शब्दों में होती है । शब्द ही धरती, शब्द हा आकाश, शब्द भयो प्रकाश । सगली सृष्टि शब्द के पाछे, कह नानक शब्द घटा घट आछे ।। जब तक मानव को सत्य का बोध नहीं होता तो दुखों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता ।
अतः आज मानव केवल मात्र इन्द्रिययुखो की प्राप्ति के लिये दिन रात प्रयास में लगा हुआ है। परंतु फिर भी इन प्रयासो का परिणाम सुखमय न हो, दुःखों से ग्रस्त होता जा रहा है। इसी कारण समस्त विश्व आज भंयकर विनास के कगार पे खडा है आज अशान्ति खी प्रचण्ड ज्वालाओं ये झूलस कर त्राहि त्राहि मचा रहा है। संसार के समणीक प्रदार्थों की प्राप्ति होने पर भी दुःखों का भार बढता जा रहा है,उसका केवल आज एक ही कारण है। भगवान विश्वकर्मा सें विमुखता होना । यदि मनुष्य को भौतिक विज्ञान व अध्यात्मिक कल्पित विज्ञान का स्वामी विश्वकर्मा है। तो एक दिन मानव कल्पित भगवानों की मृग तृष्णा से मुक्ति पाकर ऋग्वेद की (1-105-8) की इसी ऋचा का सार्थक प्रयोग करते हुए साथक निकर्थक काल्पनिक भगवानों की गिरफत से मुक्ति पा सकता है। वेद मंत्र यू हैः-
संमा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः। मुषो न शिशना व्यदन्ति माल्यः।।
अर्थात कल्पित भगवान के पुजा पाठ मे फंस कर दुखात्र्कान्त मनुष्य विश्वकर्मा भगवान से प्रर्थना करते हुए कहेगा कि मैं आधियों व व्याधियों के जटिल चंगुल में फंस गया हूँ कि जैसे अनेक सौतेली स्त्रियाँ पति को सन्तप्त करती रहती हैं और स्वार्थ पूर्ण तृष्णायें चहो की भान्ति खा रही हैं । अर्थात ये इन सभी समस्याओं का समाधान विश्वकर्मा भक्ति में ही निहित है।

Harish Chand Vishwakarma

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