Sunday, January 29, 2012

जिसकी रचना इतनी सुन्दर 
तुझे देखकर जग वाले पर यकीन नहीं कर क्यूँ होगा 
जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा 
वो कितना सुन्दर होगा

तुझे देखने को मैं क्या हर दर्पण तरसा करता है
ज्यों तुलसी के बिरवा को हर आँगन तरसा करता है 
हर आँगन तरसा करता है

राग रंग रस का संगम आधार तू प्रेम कहानी है 
मरे पासे मन मैं यू उतारी ज्यों रेट में झरना पानी का
 ज्यों रेट में झरना पानी का

अपना रूप दिखने को तेरे रूप में खुद ईश्वर होगा 
जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा  
वो कितना सुन्दर होगा 

Friday, January 13, 2012

मकरसंक्रांति
Mithi Boli,
Mithi juban,
MAKAR SANKRAT ka
yahi hai paigam,
Take sweet,
Talk sweet &
be SWEET ,
HAPPY SANKRAT
Happy Makar Sankranti

 



 

Saturday, January 7, 2012

 गाना - वो जाने वाले हो सके तो लौट के आना
वो जाने वाले हो सके तो लौट के आना
ये घात तो ये बात भूल ना जाना

बचपन के  तेरे मीत तेरे संग के सहारे
ढूंढेंगे तुझे गली गली सब इ गम के मारे
पूंछेंगी हर निगाह ये तेरा ठिकाना

दे दे के ये आवाज कोई हर घडी बुलाये
फिर जाए जो उस पार कभी लौट के ना आये
है भेद ये कैसा कोई पूछ तो बताये



लता मंगेश्कर

हमें बस ये पता है वो, बहुत ही खुबसूरत है 
लिफ़ाफ़े के लिए लीकें पते की भी जरुरत है 

हम ने सनम को ख़त लिखा, ख़त में लिखा 
ए दिलरुबा, दिल की गली, सहर- ये- वफा 

पछे ये ख़त जाने कहाँ, जाने बने क्या दास्ताँ 
उस पर रकीबों का ये दर, लग जाए उनके हाथ अगर 
कितना बुरा अजाम हो, दिल मुफ्त में बदनाम हो 
एसा ना हो एसा ना हो, अपने खुदा से रात दिन 
मांगा किये हम ये दुवां 

पीपल का ये पत्ता नहीं, कागज़ के ये टुकडा नहीं 
इस दिल का ये अरमान है, इसमें हमारी  जान है
ऐसा गजब हो जाए ना, रिश्ते में ये खो जाए ना 
हमने बड़ी ताकीद की, डाला इसे जब डाक में 
ये डाक बाबू से कहा 

बरसों जवाब ये यार का, देखा किये हम राश्ता
एक दिन वो ख़त वापस मिला, और डाकिये ने ये कहा 
इस डाक खाने में नहीं, सरे जमाने में नहीं 
कोई सनम इस नाम का, कोई गली इस नाम की
कोई शहर इस नाम का

हरीश  

Thursday, January 5, 2012










सुहानी चाँदनी रातें हमें सोने नहीं देती
सुहानी चाँदनी रातें हमें सोने नहीं देती,
तुम्हारे प्यार की बातें हामे सोने नहीं देती 

तुम्हारी रेशमी जुल्फों में दिल के फूल खिलते है,
कहीं फूलों के मौसम में कभी हम तुम भी मिलते थे 
पुरानी वो मुलाकातें हमें सोने नहीं देती 

कहो ऐसा न हो लग जाये दिल में आग पानी से 
बादल ले राश्ता अपना घटायें मेहरबानी से
के यादों की ये बरसातें हमें सोने नहीं देती 

हरीश 

Tuesday, January 3, 2012

सुन्दर काण्ड दोहा  

1

दो 0- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।1

दो0- राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।।

दो0- पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।।

दो0-  तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।।
दो0-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।5।।


दो0- तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।


दो0- अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।।


दो0- निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।।


दो0-  आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।9।


दो0-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद।।10।।


दो0- जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।11।।


दो0- कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ।।12।।
दो0- कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।13।।

दो0- रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर।।14।।
दो0- निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।।

दो0- सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।।

दो0- देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।17।।

दो0- कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।।

दो0- ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।19।।

दो0- कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।20।।

दो0- जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।21।।

दो0- प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।।

दो0- मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।।

दो0- कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।।24।।

दो0- हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जéा कपि बढ़ि लाग अकास।।25।।

दो0- पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।26।।

दो0- जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।27।।

दो0-  जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।28।।

दो0- प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।29।।

दो0- नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।30।।

दो0-  निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।31।।

दो0-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।32।।

दो0- ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।।

दो0- कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।34।।

दो0- एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।।

दो0– राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।36।।

दो0- सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।।

 दो0- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।38।।

दो0-बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39(क)।।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।39(ख)।।
दो0-तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।40।।

दो०- रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।41।।

दो०- जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।42।।

दो०-सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।43।।

दो०- उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत।।44।।

दो0- श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।।

दो0- तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।।

दो0– अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।47।।

दो0- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।।

दो0- रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।।

दो0- प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।50।।

दो०- सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।51।।

दो0- कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार।।52।।

दो0– की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।53।।

दो0- द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।54।।

दो0– सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम।।55।।

दो0– बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।56(क)।।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।56(ख)।।
दो0- बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।।

दो0- काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।58।।

दो0- सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।।

दो0- सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।60।।


हरिश्चन्द्र विश्वकर्मा 

Bhajan


 भजन 

 तोरा मन दर्पण कहलाये 
भले बुरे सारे कर्मों को देखे और देखाये
मन ही देवता मन ही ईश्वर 
मन से बड़ा ना  कोई
मन उजियारा जब जब फैले 
जग उजियारा होये
इस उजाले दर्पण पर प्राणी, धुल ना जमने पाये
सुख की कलियाँ दुःख के कांटें 
मन सब का आधार 
मन से कोई बात छुपी ना 
मन के नैन हजार 
जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग नान पाये 

हरीश

Monday, January 2, 2012

Ajeeb Dastaan 
 



Jindigi Gujar jaayegi aahista aahista,
Fir yah wqt dgmagayga ahista aahista,
Tum mujhe yaad rakhogi kuchh der 
Fir ye Yaad bhi mit jaayega aahista aahista

Us Najar ki taraf mat dekho,
Jo aapko dekhne se inkaar karti hai 
Duniya ki bheed me us nazar ko dekhiye 
jo aap ka intzaar karti hai

Wo paani ka ek katara hai 
Jo aankh se bah jaaye ,
Aansoon to wo hai 
Jo tadap ke aankho 
me hi rah jaye 

Tumhaara hamara rishta to 
aankhon aur palkon jaisa hai 
Agar palak kuchh der naa jhapke 
To aankh ro deti hai 
Aur agar aankh me kuchh chala jaaye 
To Palak tadap uthti hai 
 हिमालय की गोंद में

चाँद सी महबूबा हो, मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था 
हाँ तुम बलकुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था 
चाँद सी महबूबा हो, मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
 हाँ तुम बलकुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था 

ना कसमे है न रश्मे है, ना सिक्वे है न वादे है..२
एक सूरत भोली भली है, दो नैना सीधे सादे है
दो नैना सीधे सादे है 
ऐसा ही रूप ख्यालों में था , ऐसा मैना सोचा था  
हाँ तुम बलकुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था 
मेरी खुशियाँ ही न बाटे, मेरा गम भी सहना चाहे.....२
देखें ना ख्वाब महलों के, मेरे दिल में रहना चाहे
मेरे दिल में रहना चाहे
इस दुनिया में क्यू था ऐसा, जैसा मैना सोचा था  
चाँद सी महबूबा हो, मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बलकुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बलकुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था

हरीश